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चुप्पी का पहाड़




(कहानी एक बुजुर्ग द्वारा सुनाई जा रही है, जैसे वह किसी को यादें साझा कर रहा हो।)


“बेटा, वो मार्च का महीना था। सर्दी ऐसी थी कि हड्डियाँ तक जम जाएँ। बर्फ तो इतनी गिर रही थी कि चारों ओर सिर्फ सफेद चादर दिखती। मैं और कैप्टन अर्जुन सिंह उस समय श्रीनगर की सरहद के उस पहाड़ी चौकी पर तैनात थे। वो चौकी… ऐसी जगह थी, जहाँ न खाना वक़्त पर पहुँचता था, न संदेश। बस, ड्यूटी का भरोसा और साथी का साथ।


अर्जुन सर बड़े दिलवाले इंसान थे। अपने परिवार की बातें किया करते थे। वो कहते, ‘राघव, ये पोस्टिंग खत्म होते ही, मैं अपनी पत्नी को मनाली घुमाने ले जाऊँगा। और हाँ, तेरी बिटिया का अगला जन्मदिन मैं ज़रूर आऊँगा।’ उनकी बातें सुनकर मेरी हिम्मत बढ़ जाती।


उस दिन सुबह, मैं खिड़की पर बैठा दूरबीन से देख रहा था। चारों तरफ बस बर्फ और सन्नाटा। अर्जुन सर चाय बना रहे थे। बोले, ‘राघव, तू इस मौसम में भी क्या गर्मी ढूँढ रहा है?’ और हम दोनों हँसने लगे।


दोपहर को उन्होंने कहा, ‘चल, चारों तरफ देख लेते हैं, बर्फ बहुत बढ़ गई है।’ हम दोनों निकले। बर्फ इतनी मोटी थी कि पैर रखना भी मुश्किल हो रहा था। और तभी… तभी अर्जुन सर अचानक रुक गए। उनका हाथ सीने पर था। बोले, ‘राघव, साँस नहीं आ रही…।’ और वो वहीं गिर पड़े।


मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं दौड़ा, उन्हें पकड़ लिया। ‘सर! क्या हुआ? कुछ बोलिए!’ उनकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो रही थीं। मैंने उनकी छाती दबाई, उन्हें उठाने की कोशिश की, लेकिन… लेकिन, बेटा, वो नहीं उठे। उनका दिल… उनका दिल बंद हो चुका था।


मैं चिल्लाया, रोया। पर उस बर्फीली पहाड़ी ने मेरी आवाज़ तक को निगल लिया।”


(सुनने वाला शांति से बुजुर्ग की बात सुन रहा है।)


“फिर?”


“फिर क्या, बेटा… मैं उन्हें छोड़कर कैसे आ जाता? मैंने उनके शरीर को खींचकर चौकी के अंदर लाया। उन्हें एक मोटे कम्बल में लपेट दिया, जैसे वो सो रहे हों। मैंने उनके पास बैठकर बात की।


‘सर, आपने तो कहा था कि मनाली जाओगे। मेरी बेटी को उसके जन्मदिन पर कौन आशीर्वाद देगा अब?’


बेटा, तीन दिन और तीन रातें मैंने उनके पास बिताईं। बाहर बर्फ गिरती रही, अंदर ठंड मुझे चीरती रही। खाना-पीना तो दूर, मैंने सोच भी नहीं पाया। अकेलापन ऐसा था कि लगता था, मैं भी वहीं खत्म हो जाऊँगा।


तीसरे दिन, मैं रेडियो से संदेश भेजने की कोशिश करने लगा। बर्फ ने सिग्नल काट रखा था। लेकिन चौथे दिन… चौथे दिन मौसम थोड़ा साफ हुआ। मैंने जैसे-तैसे संदेश भेजा।


‘कैप्टन अर्जुन सिंह… शहीद हो गए। बचाव दल भेजिए।’



कुछ घंटे बाद, लोग आए। उन्हें देखकर मेरा शरीर ढहने लगा। पर, मैंने खुद को संभाला। अर्जुन सर को मैंने अकेला नहीं छोड़ा।”


(सुनने वाला धीरे से पूछता है:) “फिर, दादा जी?”


“फिर क्या, बेटा… मैंने अपना फर्ज़ निभाया। बचाव दल ने जब अर्जुन सर के शरीर को उठाया, तो उनके साथ मैं भी नीचे उतरा। उनकी यादें, उनकी बातें, उनकी हिम्मत… सब मेरे साथ थीं।


बर्फ से ढकी उस पहाड़ी पर अब भी उनकी कहानियाँ गूँजती हैं। और मैं… मैं हर दिन उन्हें याद करता हूँ। क्योंकि ड्यूटी और दोस्ती का रिश्ता… वो कभी खत्म नहीं होता।”


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